उत्तराखण्ड की अपनी एक समृद्ध और गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा है। किसी भी सभ्यता और संस्कृति के लिये जरुरी है उनकी सांस्कृतिक गतिविधिया और इनके लिये आवश्यक होते हैं सुर और ताल, सुर जहां कंठ से निकलते हैं वहीं ताल के लिये वाद्य यंत्रों की आवश्यकता होती है। उत्तराखंड की संस्कृति और गीत संगीत की व्याख्या पर्वतीय अंचल में बजाए जाने वाले लोकवाद्य यंत्रों के बिना नहीं की जा सकती है।
उत्तराखंड के अनेक ऐसे वाद्य यंत्र हैं जो आज भी पर्वतीय लोकजीवन व लोकसंस्कृति का प्रमुख हिस्सा हैं जिन्हें देवताओं के वाद्य यंत्र अथवा पौराणिक वाद्य यंत्र कहा जाता है।लेकिन आज के समय में देखा जाए तो इन वाद्य यंत्रों का महत्व धीरे धीरे समाप्त हो रहा है। नई पीढ़ी के लोग इसकी महत्वता नहीं जानते।इसी विचारधारा को बनाए रखते हुए सरकार ने कुछ नियम बनाए है जिससे इनकी महत्वता हर एक उत्तराखंडी व्यक्ति के दिल में रहे।हमारी संस्कृति और लोक वाद्य यंत्रों की महत्त्वता बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा अनेकों कदम उठाए जा रहे है साथ ही अनेकों अभियान भी चालू जा रहे है।
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वाद्य यंत्रों का महत्व खत्म होने का मुख्य कारण है रोजगार इस क्षेत्र में अभी तक कोई रोककर नहीं था इसीलिए लोग इसको छोड़ व्यवसाय की तलाश में निकल पड़ते है जिनसे उन्हे मुनाफा और रोजगार दोनों प्राप्त हो सके।इसके लिए सरकार अब वादकों के कला कौशल और उनके पुनरुत्थान को बचाने और प्रोत्साहित करने के लिए बहुत से कार्यक्रम चलाए जा रही है।इनमें से एक है गुरु शिष्य परंपरा जिसके तहत मूर्धन्य गुरुओं के द्वारा प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रो में छह माह का प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन किया जाएगा। संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज ने बताया कि अनुसूचित जाति के लोक कलाकारों को निशुल्क इन कार्यशालाओं में वाद्य यंत्रों और वेशभूषा की जानकारी दी जाएगी।साथ ही बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्रों का निर्माण होने है रहा हुआ जिसका उपयोग अनुसूचित जाति के लोग कर पाएंगे।सरकार ने ढोल वादकों को प्रतिमाह तीन हजार रुपये पेंशन देती है।लेकिन पेंशन लेने की बात की जाए तो केवल 91 ढोल वादक ही पेंशन ले रहे हैं।इसीलिए हमारी संस्कृति धीरे धीरे खत्म ना हो, सरकार पूरी तरह से इसके लिए अनेकों कार्यकर्म चलाकर अपने प्रयास कर रही है।
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